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ये कैसे शुभचिंतक हैं भोजपुरी के?

धर्म, जाति, संप्रदाय की परिधि को तोड़ा है भोजपुरी ने निराला पिछले दिनों एक संस्था ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा कि भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में न शामिल किया जाये. दूसरी तरफ बनारस में कुछ भोजपुरी भाषाप्रेमियों ने ‘भोजपुरी माई’ की प्रतिमा स्थापित की. किसी भी भाषा के संवर्द्धन के लिए दूसरी भाषा को […]

धर्म, जाति, संप्रदाय की परिधि को तोड़ा है भोजपुरी ने

निराला

पिछले दिनों एक संस्था ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा कि भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में न शामिल किया जाये. दूसरी तरफ बनारस में कुछ भोजपुरी भाषाप्रेमियों ने ‘भोजपुरी माई’ की प्रतिमा स्थापित की. किसी भी भाषा के संवर्द्धन के लिए दूसरी भाषा को कमतर करके आंंकने से ज्यादा जरूरी है कि उस भाषा में अपने समय का बेहतरीन रचनाएं रची जाएं. इतना ही जरूरी है कि भाषा को धार्मिक पहचान से न जोड़ा जाये. पढ़िए एकजरूरी टिप्पणी.

पिछले कुछ दिनों से भाषा की दुनिया में ‘कुछ-कुछ’ चल रहा है. विशेषकर हिंदी और हिंदीभाषी इलाके की सर्वाधिक लोकप्रिय भाषा भोजपुरी के इलाके में. पिछले दिनों ‘हिंदी बचाओ मंच’ नामक एक संस्था के 110 विद्वानों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर आग्रह किया कि भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं कीजिए. यह भाषा शामिल करने योग्य नहीं है, कसौटी पर फिट नहीं है. भोजपुरी के खिलाफ उनके तथ्य और तर्क की बात छोड़ भी दें तो मजेदार कहें या कि दुखदायी, वह यह रहा कि ‘हिंदी बचाओ मंच’ जैसी कोई संस्था चलती है, यह भी हिंदी के लोगों ने पहली बार जाना. खैर! इस मंच ने जो किया वह तो अलग प्रसंग रहा. इन दिनों भोजपुरी में नये किस्म के शुभचिंतक दिखे हैं. वह भी भोजपुरी के राजधानी शहर बनारस में. उन्होंने आनन-फानन में भोजपुरी माई की प्रतिमा स्थापित कर दी और विधिवत फूल-रोड़ी-अक्षत आदि से पूजा-अर्चना शुरू कर दी.

सुनने में आ रहा है कि भोजपुरी माई की विशाल प्रतिमा स्थापित करने की योजना है. प्रतिमा के जरिये कीर्तिमान स्थापित करने की तैयारी है. ये कौन लोग हैं भोजपुरी के और कैसे ​शुभेच्छु हैं भोजपुरी के, खुदा जाने. जिन्हें इतना भी ज्ञान नहीं कि भाषा माई होती है, मातृभाषा कहते हैं, माईभाषा कहते हैं तो वह देवी-देवता वाली मां से तुलना नहीं करते, सगी मां, जनम देनेवाली मां का भाव छुपा होता है उसमें. ये कौन लोग हैं, जो भोजपुरी का मूल मर्म तक नहीं जानते. इन्हें यही नहीं मालूम कि कि कोई भी भाषा धर्म से बहुत आगे की चीज होती है.

भाषा कभी धर्म पर निर्भर नहीं रहती, वह अपना विस्तार धर्म, जाति, संप्रदाय का बंधन तोड़ समुदाय मात्र से रिश्ता जोड़ कर करती है. पता नहीं कैसे शुभेच्छु हैं, जिन्हें भोजपुरी के बारे में ककहरा तक की जानकारी नहीं, नहीं तो ऐसी बचकाना हरकत तो कभी नहीं करते.

इन्हें नहीं मालूम कि आज अगर भोजपुरी देश के 24 जिले, अनेकानेक शहरों, दुनिया के सात देशों के दायरे को तोड़ अपना अपार विस्तार करते हुए उत्तर और पूर्वी भारत की एक प्रमुख भाषा बन गयी है तो अपने स्वभाव के कारण ही.

भोजपुरी एक ऐसी भाषा है, जिसके नायकों पर गौर करेंगे तो पायेंगे कि आरंभ से ही भोजपुरी भाषी समाज ने धर्म, जाति, संप्रदाय की परिधि में भाषा को नहीं बंधने दिया है. गुरु गोरखनाथ को पुरखा माना तो कबीर को आदिकवि. भिखारी ठाकुर जाति के नाई थे. सामाजिक-राजनीतिक गलियारे में भले ही जाति को लेकर बहस चलती रही, लेकिन भोजपुरी समाज ने अपने इस नायक को दुनिया भर में फैलाया, स्थापित करवाया. यह सब किसी सरकारी प्रयास या मठ-सठ की वजह से नहीं हुआ, भोजपुरिया जमात के साझा प्रयास से हुआ. हीरा डोम ने 103 साल पहले कविता लिखी थी भोजपुरी में- अछूत की शिकायत. जाति से डोम थे. भोजपुरी समाज ने उन्हें नायक माना. रसूल मियां का नाम नहीं जानते होंगे ये लोग, जिन्होंने भोजपुरी को मार्इ बनाने की कोशिश की है.

रसूल मियां ने भोजपुरी भाषा को औजार और ह​थियार बना कर जनता को गोलबंद किया था, आजादी के परवाने थे महान सर्जक रसूल मियां. तेग अली तेग की रचनाओं से नहीं गुजरे होंगे ये लोग, जिन्होंने भोजपुरी को देवी माई बनाने की कोशिश की है. जिस बनारस में इस प्रतिमा को स्थापित कर रहे हैं, उस बनारस के संत-फकीर बिस्मिल्लाह खान को नहीं जानते होंगे ये लोग! जिंदगी भर ठेठ बनारसी और भोजपुरिया बने रहनेवाले बिस्मिल्ला खान के व्यक्तित्व-कृतित्व की दुनिया तो जानते कम से कम, तब भाषा को देवी माई नहीं बनाते. नामालूम मोहम्मद खलील का नाम सुना भी है या नहीं इनलोगों ने. मोहम्मद खलील अपने जमाने के मशहूर गायक हुए.

नजीर हुसैन का भी नाम तो सुने ही होंगे, पहली भोजपुरी फिल्म ‘ हे गंगा मइया तोहे पीयरी चढ़ईबो’ बनवाने के सूत्रधार. इन्हें तो यह भी नहीं मालूम होगा कि तैयब हुसैन पीड़ित हैं कोई, जिन्होंने भिखारी ठाकुर पर पहला शोध शुरू किया और उसके बाद निरंतर भोजपुरी की सेवा की. इन्हें जौहर शफियाबादी के बारे में भी शायद ही मालूम होगा, जो संत-पीर-फकीर हैं और आज भोजपुरी के बड़े सेवी, बड़े विद्वान, जिन्होंने महेंदर मिसिर के जीवनी पर भोजपुरी में किताब लिखी- ‘पुरबी के धाह’ और ‘रंगमहल’ नाम से भोजपुरी गजलों का संग्रह लाया. युवा रचनाकारों में मोतिहारी में रहनेवाले गुलरेज शहजाद का नाम भी नहीं सुने होंगे. गुलरेज चंपारण के इलाके में ही नहीं, भोजपुरी इलाके में भोजपुरी संस्कृति के एक बड़े जागरूक कर्मी हैं रचनाकार भी.

जिन्होंने बनारस में भोजपुरी माई की प्रतिमा स्थापित कर अब विशाल प्रतिमा के नाम पर प्रचार अभियान शुरू किया है, वे दरअसल भोजपुरी जैसी उदार, सहज और जाति-संप्रदाय-धर्म मुक्त भाषा के दुश्मन हैं. उन्हें तुरंत अपना नाम चाहिए. अखबार में फोटो चाहिए. सस्ती लोकप्रियता चाहिए, इसलिए बनारस, जो सभी देवी-देवताओं का वास स्थल है, जहां हर गली में मंदिर है, हर घर में मंदिर है, वहां एक और हिंदू स्वरूप में देवी को स्थापित कर देना चाहते हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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