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चंपारण सत्याग्रह के सौ साल : आज गांधी हमसे कर रहे सवाल

रजी अहमद गांधीवादी विचारक गांधीजी का दर्शन अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति की बात करता है. उनका सपना ​एक ऐसे भारत का था, जहां सबको बराबरी के आधार पर जीने व अपना भविष्य तय करने का​ संवैधानिक​ अधिकार हो. चंपारण शताब्दी समारोह के मौके पर यह सवाल मौजूं है. चंपारण सत्याग्रह पर गांधीजी के संदेश […]

रजी अहमद
गांधीवादी विचारक
गांधीजी का दर्शन अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति की बात करता है. उनका सपना ​एक ऐसे भारत का था, जहां सबको बराबरी के आधार पर जीने व अपना भविष्य तय करने का​ संवैधानिक​ अधिकार हो. चंपारण शताब्दी समारोह के मौके पर यह सवाल मौजूं है.
चंपारण सत्याग्रह पर गांधीजी के संदेश धूमिल हो​​ रहे हैं. उनके सपनों का भारत बनाने की बातें तो हो रही हैं, लेकिन उनकी नीतियों पर अमल नहीं हो रहा है. यही कारण है कि शिक्षा और स्वास्थ्य से लेकर तमाम बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए देश की बड़ी आबादी दूसरों पर निर्भर है.
ऐसे समय में गांधीजी का चंपारण सत्याग्रह आज भी प्रासंगिक है. उसकी एक वजह तो यह है कि दुनिया ग्लोबलाइजेशन के दौर से गुजर रही है. भारत भी डब्ल्यूटीओ का हिस्सा है. डब्ल्यूटीओ में जो फैसले होते हैं, वे कॉरपोरेट हितों को ध्यान में रख कर लिये जाते हैं. हमारे देश पर भी कॉरपोरेट घरानों का दबदबा लगातार बढ़ा है. हम जिन नीतियों के सहारे आगे बढ़ रहे हैं, उनमें देश पर कॉरपोरेट घरानों की पकड़ दिनों-दिन मजबूत होती जायेगी.
आजाद हिंदुस्तान की आर्थिक नीतियों में गांधीजी के सपनों के जिन कुछेक पहलुओं को शामिल किया गया था, वे भी खतरे में हैं. विश्व बैंक इन्हें विकास में बाधक मानता है और विश्व बैंक की मंजूरी के बगैर हम अपनी कोई नीति तैयार नहीं कर सकते. यही कारण है कि चंपारण सत्याग्रह के सौ साल बाद गांधी के संदेश धूमिल होते दिख रहे हैं. यह आनेवाले समय के लिए अच्छा नहीं है.
मुद्दों पर किये गये प्रयोग बने रचनात्मक कार्यक्रम : चंपारण सत्याग्रह के दौरान गांधीजी ने जिन-जिन मुद्दों पर प्रयोग किये, वे ही आगे चल कर रचनात्मक कार्यक्रम बन गये थे. गांधीजी ने शिक्षा की व्यवस्था का प्रयोग किया. हमने आजादी के बाद अपने संविधान में अनिवार्य व मुफ्त प्राइमरी शिक्षा का प्रावधान किया, लेकिन क्या आज गुणवत्तापूर्ण प्राइमरी शिक्षा मुफ्त में मिल रही है? वास्तव में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ऊपरी वर्ग या चंद पैसेवालों के परिवारों तक सीमित है.
गांधीजी ने चंपारण में तीन स्कूल खोले थे. उन्होंने ढाका प्रखंड में बड़हरवालखनसेन, भीतिहरवा और वृंदावन में खोले गये स्कूल में शिक्षा नीति का प्रयोग किये. इसी अनुभव के आधार पर 1937 में बेसिक शिक्षा नीति बनी. समिति के अध्यक्ष शिक्षाविद् डॉ जाकिर हुसैन बने.
आजादी के बाद बेसिक शिक्षा नीति पर अमल हुआ. सर्वोदय के अलावा बेसिक स्कूल खुले. बिहार में 335 बेसिक स्कूल खुले. शिक्षा को श्रम आधारित बनाया गया था. उद्देश्य था- हर हाथ को काम मिलना चाहिए. सरकार की व्यवस्था की वजह से वह कारगर नहीं रहा. वह नीति सफल नहीं रही. सरकार ने डिग्निटी ऑफ लेबर की तरफ ध्यान नहीं दिया.
स्वास्थ्य, सफाई, सामाजिक न्याय का प्रयोग : चंपारण सत्याग्रह के दौरान गांधी जी ने स्वास्थ्य, सफाई, सामाजिक न्याय व सौहार्द के प्रयोग किये. ये सभी चीजें गांधीजी के ब्लू प्रिंट में थीं, जिनमें वे सफल रहे. उस समय की पीढ़ी ने इन चीजों का अमल किया. बाद में उसमें गिरावट आयी.
राजनीति का स्वरूप बदला. राजनीति कारोबार बन गयी. सारी चीजें बदल गयीं. संविधान में विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका की व्यवस्था बनी, जो आपस में गडमड हो गयी. आज तीनों अपने-अपने दायित्व का ठीक से अनुपालन नहीं कर रहे हैं. चुनाव में जीत कर ऐसे-ऐसे लोग जा रहे हैं, जिनसे जनता की भलाई की बात सोचना मुश्किल है. चुनाव जीतनेवाले 65 फीसदी लोग आपराधिक प्रवृत्ति के या करोड़पति हैं. एक गरीब आदमी के लिए उनके दिल में क्या दर्द होगा, कहना मुश्किल है.
गांधीजी का दर्शन अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति की बात करता है. वही समाज खुशहाल व सभ्य माना जाता है, जहां गरीबों की तादाद कम हो.
यह हमारी बदकिस्मती है कि तीसरी दुनिया में अच्छे हालात के बावजूद भारत में गरीबी, अशिक्षा, भूख है, बेरोजगारों की तादाद अधिक है. समाज आपसी कलह में बंटता चला जा रहा है. सामाजिक संतुलन बिगड़ रहा है, जो आनेवाले दिनों के लिए चिंता की बात है. धर्म-जाति के आइने में लोगों को देखने की कोशिशें हो रही हैं, जो स्वस्थ समाज के लिए अच्छा नहीं है.
स्वतंत्रता सेनानियों ने ऐसे किसी नजरिये से आजाद हिंदुस्तान का ​सपना नहीं देखा था. ​उनका सपना ​एक ऐसा भारत बनाने का था, जहां सबको बराबरी के आधार पर जीने व अपना भविष्य तय करने का​ संवैधानिक​ अधिकार हो. ​आज गांधी हमसे सवाल कर रहे हैं कि वह सपना अब तक पूरा क्यों नहीं हुआ है?​
नयी पीढ़ी को जानकारी देना आवश्यक
हमलोग चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी मना रहे हैं. आजादी की लड़ाई को पीछे मुड़कर देखना चाहिए. 1917 में आजादी की लड़ाई के गांधी युग की नींव पड़ी थी, जो 15 अगस्त, 1947 को आजादी की मंजिल पर पहुंच कर पूरी हुई. हमलोगों की जिम्मेदारी बनती है कि उस गौरवपूर्ण इतिहास के पन्नों को पलटें. बुजुर्गों की कृतियों पर नजर डालें. संकल्प लें कि हमारी नयी पीढ़ी सुखद हो. चैन के साथ अपना भविष्य खुद बनाने की स्थिति में सदा रहें. गांधीजी की नीतियों को गांव-गांव तक पहुंचाने की जिम्मेवारी सरकार की बनती है.
(लेखक गांधी संग्रहालय, पटना के सचिव हैं.)
(प्रमोद झा से बातचीत पर आधारित)

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